दौड़

दौड़ती ट्रेन के डिब्बे में बैठी मैं
खिड़की से झाँकती हूँ बाहर
ट्रेन के साथ दौड़ रही हैं रास्ते में गाड़ियाँ
पेड़, खेत और पहाड़ भी
इनके साथ ही दौड़ रहा है मेरा मन
कभी यहाँ तो कभी वहाँ
कभी प्रियतम के आलिंगन में
तो कभी माँ की गोद में
कभी पापा का हाथ थामे निकलता है सैर पर
तो कभी बच्चों के साथ खेलता है लुकाछिपी
कभी दोस्तों के साथ गप्पें मारता है काफी शप में

कभी कुढ़ता है अकेले कडवी यादों में आपा खोकर
कभी खिल उठता है सुखद स्मृतियों का सेंचन पाकर

तपते सूरज का चक्कर लगाने दौड़ती इस दुनिया में
मैं भी दौड़ी जा रही हूँ अनवरत
गिरती हूँ कभी फिर उठ जाती हूँ
कभी गिरते-गिरते सँभल जाती हूँ
अंतहीन इस दौड़ का
कहाँ है गंतव्य?
मैं क्यों दौड़ रही हूँ?

Comments

  1. Daudna sehed ke liya bahut accha hai :)

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  2. चलती गाडीका नाम है जिन्दगी मेडमजी :)

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  3. जीवन सत्य - सुनदर अभिव्यक्ति ! और पढने की इच्छा के साथ

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